-राम पुनियानी



एनसीईआरटी की कक्षा 11 की एक पाठ्यपुस्तक में छपे एक कार्टून के डाक्टर अम्बेडकर के प्रति कथित रूप से अपमानजनक होने के मुद्दे पर बवाल मचने के बाद, केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री ने उक्त पुस्तक को वापिस लेने की घोषणा कर दी व एनसीईआरटी की सभी स्कूली पाठ्यपुस्तकों के पुनरावलोकन के लिए एक समिति भी नियुक्त कर डाली। विवादित कार्टून के निहितार्थ को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत किया जा रहा है। यह पुस्तक एनसीईआरटी द्वारा भारतीय राजनीति पर प्रकाशित पुस्तकों की एक श्रृखंला का हिस्सा है। ये सभी पुस्तकें अत्यंत उच्चस्तरीय हैं और भारतीय राजनीति के सभी पहलुओं का अत्यंत दिलचस्प व निष्पक्ष विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं। 

इस मुद्दे को लेकर कुछ युवकों ने एनसीईआरटी की पूर्व सलाहकार प्रोफेसर सुहास पलसीकर के कार्यालय में उत्पात मचाया। क्या विडंबना है? जिस व्यक्ति द्वारा बनाए गए संविधान ने हमें अभिव्यक्ति और विचार की आजादी दी उसी व्यक्ति के नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटा जा रहा है। यह कार्टून सन् 1940 के दशक में बनाया गया था। उस समय अम्बेडकर और नेहरू दोनों ही जीवित थे और इस कार्टून ने उन्हें संविधान के निर्माण की गति को तेज करने में अपनी असहायता का अहसास ही कराया होगा। उनके ज़हन में कार्टून के रचयिता शंकर को किसी भी प्रकार की सजा देने या परेशान करने का रंच मात्र विचार भी नहीं आया होगा। 

इस पूरे मुद्दे ने कई प्रश्न उठाए हैं और इनका लेना-देना न तो भारत में दलितों की बदहाली से है और न ही भारतीय संविधान से। हममें से कुछ को यह अवश्य याद होगा कि लगभग एक दशक पहले, तत्कालीन एनडीए गठबंधन सरकार ने संविधान का पुनरावलोकन करने का अपना इरादा जाहिर किया था। एनडीए और विशेषकर भाजपा का दावा था कि संविधान को सिरे से बदल डालने का समय आ गया है। उस समय देश के दलितों ने एक होकर आरएसएस की राजनैतिक शाखा (भाजपा) के इस षड़यंत्र को बेनकाब किया था। उन्होंने एकजुट होकर भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष-प्रजातांत्रिक ढांचे के स्थान पर हिन्दू धर्मग्रंथों पर आधारित संविधान के निर्माण का जमकर विरोध किया था। संघ अपने हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के स्वप्न को साकार करने के लिए भारतीय संविधान को बदलना चाहता था। आज, एक दशक बाद भी हमें भारतीय संविधान में निहित मूल्यों को चुनौती देने वाली ताकतों के प्रति सावधान रहने की जरूरत है। इस मुद्दे को भावनात्मक रंग देना अवांछनीय और हानिकारक होगा। 

संविधान निर्माण की प्रक्रिया धीमी क्यों थी? क्या इसलिए कि अम्बेडकर ऐसा चाहते थे? कतई नहीं। सच यह है कि अम्बेडकर की पूरी कोशिशों के बावजूद संविधान निर्माण का काम कछुआ गति से हो रहा था। अम्बेडकर को नेहरू का पूर्ण समर्थन प्राप्त था परंतु आरएसएस और उससे मिलती-जुलती सोच रखने वाले संगठन और व्यक्ति तैयार किए जा रहे संविधान का विरोध कर रहे थे। तत्कालीन आरएसएस प्रमुख एम. एस. गोलवलकर ने निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहे संविधान का विरोध करते हुए कहा था कि देश को नए संविधान की जरूरत नहीं है क्योंकि हमारे पास मनुस्मृति के रूप में एक “महान“ संविधान पहले से ही मौजूद है! यहां यह याद करना समीचीन होगा कि संविधान निर्माता डाक्टर अम्बेडकर ने मनुस्मृति को सार्वजनिक रूप से जलाया था और कहा था कि वह शूद्रों और महिलाओं को सदा गुलाम रखने की वकालत करने वाला दस्तावेज है। संविधान निर्माण की प्रक्रिया इसलिए धीमी थी क्योंकि साम्प्रदायिक और दकियानूसी तत्व, सामाजिक परिवर्तन की उस प्रक्रिया को रोकना चाहते थे जो संविधान के लागू के बाद शुरू होती। 

अम्बेडकर के सच्चे समर्थकों को यह समझना होगा कि जिन शक्तियों ने उस समय संविधान निर्माण की प्रक्रिया में रोड़े अटकाए थे वही शक्तियां आज भी सामाजिक न्याय की राह का कांटा बनी हुई हैं। डाक्टर अम्बेडकर के लिए सामाजिक न्याय अत्यंत महत्वपूर्ण था। संविधान के मसौदे को संविधान सभा के पटल पर रखते हुए अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि इस संविधान के लागू होने के साथ ही भारत राजनैतिक स्वतंत्रता अर्थात एक व्यक्ति एक वोट के युग में प्रवेश कर जाएगा परंतु सामाजिक स्वतंत्रता का लक्ष्य तब भी अधूरा रहेगा और उसे पाना आसान नहीं होगा। 

समय अपनी गति से चलता रहा। जहां सन् 1940 से लेकर 1970 के दशक तक देश का ध्यान सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक मुद्दों पर था वहीं सन् 1980 के दशक में देश में पहचान की राजनीति का आगाज हुआ। और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनेक ओर से हमले शुरू हो गए। एम. एफ. हुसैन के जिन चित्रों को लेकर हिंसा भड़की, उन चित्रों का तब तनिक भी विरोध नहीं हुआ था जब वे बनाए गए थे। शंकर का कार्टून, जिसने तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्व को आत्मावलोकन करने  पर मजबूर किया होगा, आज 70 साल बाद संकीर्ण ताकतों के निशाने पर है। देश का ध्यान सामाजिक मुद्दों से हटाकर पहचान से जुड़े मुद्दों पर चला जाना अत्यंत चिंताजनक है। पहचान से जुड़े मुद्दे यथास्थितिवाद के पोषक होते हैं जबकि सामाजिक मुद्दों पर चिंतन से सामाजिक बदलाव की नींव पड़ती है। 

कुछ दलित नेता-जिन्हें मूलभूत सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए काम करना चाहिए-भी सत्ता की खातिर पहचान आधारित राजनीति के शार्टकट का इस्तेमाल कर रहे हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह भाजपा ने राम मंदिर मुद्दे का इस्तेमाल किया था। शंकर के कार्टून पर विवाद खड़ा करने की बजाए उन्हें यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि संविधान निर्माण का काम धीमी गति से क्यों चल रहा था? वे कौनसी ताकतें थीं जो इस महती कार्य को पूरा नहीं होने देना चाहती थीं? इसकी जगह, वे भी यथास्थितिवादियों के शिविर में शामिल हो गए हैं। 

दलित नेता रामदास अठावले अब उस गठबंधन के साथ हैं जिसका लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र बनाना है। मायावती ने अनेकों बार भाजपा से हाथ मिलाया और यहां तक कि गुजरात में मोदी का चुनाव प्रचार भी किया। सन् 2000 में आरएसएस के तत्कालीन प्रमुख के. सुदर्शन ने कहा था कि भारतीय संविधान पश्चिमी मूल्यों पर आधारित है और इसकी जगह भारतीय धर्मग्रंथों पर आधारित संविधान लाया जाना चाहिए। हम सबको विवादों की तह तक जाने की कोशिश करनी चाहिए। किसी भी मुद्दे के मात्र सतही अध्ययन के आधार पर भावनाओं के ज्वार में बह जाना कतई समझदारी नहीं कही जा सकती।

 (मूल अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: अमरीश हरदेनिया)  

(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)