पाकिस्तान की शायरा इशरत आफरीन की कविता पूरे उपमहाद्वीप में औरतों की सामाजिक स्थिति और सरोकारों के प्रति रिवायती सोच से क़रीब-क़रीब विद्रोह सा करती है। कराची की इस तरक्कीपसंद कवयित्री ने सामंती परिवार से ताल्लुक रखने के बावजूद नारी के दमन , शोषणके खिलाफ अपने अल्फाज़ दुनिया के सामने रखे। यहां पेश हैं उनकी कुछ रचनाएं -


मैं

ये अना के कबीले की
सफ्फाक लड़की
तेरी दस्तरस से
बहुत दूर है

मायने अना =अहम् ,सफ्फाक =बेरहम, दस्तरस =पहुँच 


रिहाई

असीर लोगों उठो
और उठकर पहाड़ काटो
पहाड़ मुर्दा रिवायतों के
पहाड़ अंधी अक़ीदतों के
पहाड़ ज़ालिम अदावतों के
हमारे जिस्मों के क़ैदख़ानों में
सैकड़ों बेक़रार जिस्म
और…. उदास रूहें सिसक रही हैं
वह ज़ीना ज़ीना भटक रही हैं
हम उनको आज़ाद कब करेंगे
हमारा होना हमारी उन आने वाली नस्लों के वास्ते है
हम उनके मक़रूज हैं
जो हमसे वजूद लेंगे
नमूद 
लेंगे
कटे हुए एक सर से लाखों सरों की तख़्लीक़
अब कहानी नहीं रही है
लहू मे जो शै धड़क रही है
हुमक रही है
हज़ारों आँखें
बदन के ख़ुलियों से झाँकती
बेक़रार आँखें
यह कह रही हैं-
असीर लोगों
जो ज़र्द पत्थर के घर में यूँ बेहिसी की चादर लपेट कर सो रहे हैं
उन से कहो
कि उठकर पहाड़ काटें
हमें रिहाई की सोचना है


एक ग़ज़ल


लड़कियां माँओं जैसा मुकद्दर क्यों रखती है
तन सहरा और आँख समंदर क्यों रखती हैं

औरतें अपने दुख की विरासत किसको देंगी
संदूकों में बंद यह ज़ेवर क्यूँ रखती हैं

वह जो आप ही पूजी जाने के लायक़ थीं
चम्पा सी पोरों में पत्थर क्यूँ रखती हैं

वह जो रही हैं ख़ाली पेट और नंगे पाँव
बचा बचा कर सर की चादर क्यूँ रखती हैं

बंद हवेली में जो सान्हें हो जाते हैं
उनकी ख़बर दीवारें अकसर क्यूँ रखती हैं

सुबह विसाल किरनें हम से पूछ रही हैं
रातें अपने हाथ में ख़ंजर क्यूँ रखती हैं

मायने  सान्हें हादिसे, सुबह विसाल-मिलन